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उपभोक्ता अदालतों की कर्येपद्धति पर उपभोक्ताओ के अकाट्य प्रश्न

 

उपभोक्ता अदालतों की कर्येपद्धति पर  उपभोक्ताओ के अकाट्य प्रश्न

चाहे बात उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में  संशोधन के बाद करे या आज ही हो, इस कानून का मूल मन्तव्ये उपभोक्ताओ का हित ही रहेगा .न्याय के नेसर्गिक नियम के आधार पैर बना यह अधिनियम न तो सिविल संहिता और न ही एविड़ेंसे कानून को सख्ती से पालन करने के लिए बन अता . किन्तु दुर्भाग्य से तीस वर्ष बाद भी इस कानून के सही अनुपालन की दिशा नहीं बन सकी है. कभी इंफ्रास्ट्रक्चर न होने की दुहाई दे केर इस प्रश्न को टला जाता रहा पैर अब फ़ोरम्स के नाम पैर खर्चो में भी कोई कमी नहीं दिखाई दे रही पैर उपभोक्ता अदालतों के काम करने के ढर्रे में कोई सुधर नहीं देखा जा रहा. सेवनिवृत जज प्रेसिडेंट नियुक्त होते ही उपभोक्ता अदालतों को सिविल कोर्ट बनाने में देर नहीं लगाते और अन्य दो सदस्यों की भूमिका लगभग नहीं के बराबर होती है.

हमने सर्वे करके उन सभी पहलुओ की जाँच करने के बाद कुछ तथ्य निकाले है जिनपर काम करने की आवश्यकता है और जिनपर आधिकारिक रूप से मंत्रालय को नज़र रखने की आवश्यकता .

 प्रांरम्भिक आपतियो का निराकरण पहले न किया जाना –

वर्ष २००२ के संशोधन में एक विशेष प्रावधान यह किया गया था कि मामले को रजिस्टर करने के तुरंत बाद यह देख लेना चाहिए की उसको एडमिट  किया जा सकता है या नहीं . इसके लिए उपभोक्ता अदालत का अधिकार क्षेत्र तथा उपभोक्ता होने के लिए मुख्य बातो को देखा जाता है.इसके लिए एक सुनवाई होनी चाहिए तथा एडमिट करने  का निर्णय भी २१ दिनों के भीतेर हो जाना चाहिए परन्तु उपभोक्ता अदालते आज भी अंतिम स्टाज पैर आकर यह कह केर केस ख़ारिज केर रही है की यह मामला उपभोक्ता अदालत नहीं सुन सकती .

विपक्षी पार्टी के अनुपस्थित रहने पर भी एकतरफा कार्येवाही का न होना.

नियम के अनुसार यदि विपक्षी पार्टी निरंटर अनुपस्थित रहती है तो अदालत एकतरफा कर्येवाही आगे बड़ा सकती है . किन्तु फोरम बार बार समाये दे केर मामले को स्थगित करती है जिससे उपभोक्ताओ का विश्वास डगमगा रहा है .

विपक्ष के उपस्थित न होने पर बार बार नोटिस

प्रक्रिया के अनुसार एक बार नोटिस भेजे जाने पर यदि वह वापिस नहीं लौटता तो नोटिस सर्वे हो गया माना जाता है. शिकायतकर्ता को दस्ती नोटिस भी दिया जा सकता जिसे वेह खुद भी पोस्ट केर सकता है . किन्तु उपभोक्ता फोरम कई बार नोटिस भेजता चला जाता है . अदालत को चाहिए की उपभोक्ता से दूसरा संभव पता भी ले केर एक और नोटिस भेज दे पर बार बार उसी पते पर नोटिस भेजने का कोई टर्क नही होता. उपभोक्ता कभी समझ नहीं पता और वकील न करने पैर उसे अनजाने में इस स्थिति से गुज़ारना पड़ता है . नेशनल कांसुमेर हेल्पलाइन में उपभोक्ताओ के इन प्रश्नों का जवाब देते नहीं बनता.

अकारण तारीख देना

उपभोक्ता नियमो  के अनुसार कोई भी  तारिख बिना कारन लिखे या बिना दंड लगाये नहीं दी जानी चाहिए . उपभोक्ता अदालतों में इस नियम को ताक पैर रख दिया गया है और यही कारन है की सिविल कोर्ट की तेरेह तारिख पैर तारीख लगती चली जा रही है . न तो मंत्रालय आवर न ही स्टेट कमीशन की तरफ से कोई जाँच होती है जबकी अधिनियम की धरा १७ इस बात पैर बल देती है की स्टेट कमीशन फाइल माँगा केर जाँच केर सकता है तथा फ़ोरम्स को आवश्यक निर्देश दे सकता है 

आर्डर पास होने के बाद फिर से नोटिस

उपभोक्ता अदालतों को अपने आदेश के पुनरीक्षण का अधिकार नहीं है किन्तु बड़ी विचित्र बात हा की आदेश पास केर देने के बाद फिर से नोटिस हो जाता है ,विपक्ष जो अब तक अनुपस्थित था अचानक पेश हो जाता है और केस फिर चल पड़ता है .इन सब स्थितियों ने फोरम का स्वरुप ही बदल दिया है और यह न तो सिविल कोड तो फॉलो करते दीखते है और न ही उपभोक्ता कानून की प्रक्रिया को.

एक्सपर्ट ओपिनियन की लम्बी प्रक्रिया

जिन मामलो में विशेशाग्ये की रे की आवश्यकता होती है उसमे अदालत भी एक्सपर्ट ओपिनियन माँगा सकता है . चूंकि उपभोक्ता को एक्सपर्ट ओपिनियन जुटाने में कठिनाई होती है ,कोर्ट को भी ऐसा करने का अधिकार है . किन्तु आश्चर्ये की बात है की कोर्ट स्पेसिफिक बात पूछने की बजाये सारी फाइल भेज देता है जो  एक्सपर्ट और कोर्ट के बीच पेंडुलम की तेरेह घूमती रहती है ,न कोई समझ पता है न समझना चाहता है की क्या जानकारी चाहिए . एक मजाक सा बन जाता है और फाइल सालो साल एक्सपर्ट ओपिनियन के लिए पड़ी रहती है .

प्रॉक्सी वकीलों की पेशी

बिना फाइल के कोई भी वकील किसी भी केस के लिए खड़ा हो केर हाजरी लगवा लेता है,मात्र एक फ़ोन अपने मित्र वकील को करके प्रॉक्सी की तेरेह खड़ा केर देना एक रोज़ का रीतीं है जिसे उपभोक्ता अदालते रोकने की कोई कोशिश नहीं केर रही .

बेहस सुनने वाले मेम्बर को छोड़  बेहस के समये अनुपस्थित रहे दुसरे मेम्बर द्वारा आर्डर पर हस्ताक्षेर

ऐसा हो ही रहा है जो की कानून की दृष्टी से आर्डर को इललीगल बना देता है और उस ऑर्डर को इसी बात पैर चुनौती दी जा सकती है . यहाँ यह समझना आवश्यक है की आर्डर पैर हस्ताक्षेर किसी भी दिन हो ,बेहेस के दिन जिसने बेहेस सुनी वाही हस्ताक्षेर केर सकता है . उपभोक्ता इन गलतियों का शिकार हो रहा है जिसकी उसे खुद भी समझ नहीं होती . यह दायित्व अदालतों का है की इन बातोका ध्यान रखा जाये.

यह सब बाते आलोचना के लिए नहीं है .छोटी छोटी भूल से बड़ी बड़ी कठिनाईयों से घिरे उपभोक्ता को रहत देने के लिए एक आवेदन है . सरकार इस दृष्टी में कारगर कदम उठाये ,यह सद इच्छा  है.

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