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छात्र भी उपभोक्ता है -यह भी जानिए

                  छात्र भी उपभोक्ता है -यह भी जानिए

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के लागू  होने के बाद सबसे बड़ा संशो धन १९९३ में हुआ जब वस्तुओ के साथ साथ सेवाओ को भी उपभोक्ता अदालतो का विषय बना दिया गया।  बाज़ार में बिकने वाली वस्तुओ के लिए तो हर व्यक्ति जनम लेने से लेकर मृत्यु तक उपभोक्ता रहता है।  जन्म लेने के साथ ही वह हॉस्पिटल की सेवाए लेता है और मरने के बाद भी उसके अंतिम क्रिया- कर्म के लिए लकड़ी खरीदी जाती है। परन्तु जब सेवाए भी इस अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित कर दी गयी तो सभी सेवा देने वाली एजेंसियो  ने पूरी कोशिश की  कि वे इस परिधि से मुक्त रहे। शिक्षा संस्थानो ने भी कई तर्क दे कर उपभोक्ता अदालतो से बाहर रहने की कोशिश की। 

उनका पहला तर्क था कि शिक्षा एक उदात्त कर्म है व्यवसाय नहीं जिसे बिसनेस माना जाये। फिर शिक्षक और छात्र का सम्बद्ध भी आदर और श्रद्धा पर आधारित होता है ,विश्वास का होता है।  इसमें सेवा में कमी को लेकर कानून के दखल की कोई जगह नहीं।  दूसरी बात-छात्र तो शिक्षण संस्थान का ही अंग होता है ,उसे शिक्षण संस्थान से अलग खड़ा  नहीं किया जा सकता।  सभी तर्क सुनने में बड़े अछे लगते है। यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय तक गया और कई केसो में यह तर्क सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालये  अंततः सभी परिस्थितियो तथा वर्त्तमान समाज व्यवथा को देखते हुए इस नतीजे पर पंहुचा कि छात्र उपभोक्ता है और शिक्षण संसथान सेवा प्रदान करने वाली एजेंसी।  यह सत्य है कि शिक्षा आज भी एक उत्कृष्ट कर्म है किन्तु इसके व्यवसायीकरण हो जाने में भी कोई कसार बाकी नहीं बची। तो यह समाज सेवा है, ही स्वार्थरहित, लाभरहित कर्म।  जिस विश वास की बात कभी किसी जमाने में शिक्षक छात्र के बीच होती थी, वह भी अब कही दिखाई नहीं देती।  इसलिए बड़े बड़े  उद्गारो से इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि शिक्षा भी अब एक दुकानदारी है।   दूसरे तर्क पर भी बहस के दौरान यह बात निकल कर सामने आई कि चाहे छात्र संस्थान का ही अंग हो ,उसकी स्कूल या कॉलेज के प्रशासन में कोई भागीदारी नहीं होती। उसे उन नियमो का पालन करना होता है जो प्रशासन उनके लिए बनाता है।  स्पष्ट है कि एक सेवा लेता है और दूसरा सेवा देता है जिसके लिए बाकायदा फीस दी जाती है।    

अब प्रश्न उठता है कि आखिर किन बातो के लिए छात्र  को अपने कॉलेज या स्कूल  के विरुद्ध जाने की  स्थिति सकती है।  उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अनुसार सेवा में किसी भी प्रकार कि त्रुटि होने पर उपभोक्ता अदालत में शिकायत की  जा सकती है।  सामान्यतः स्कूल की  व्यवथा में ढीलापन, पर्याप्त शिक्षक होना,सुविधाओ की  कमी ,पाठ्यक्रम का समय पर शुरू किया जाना,अध्ययन सामग्री का दिया जाना आदि कई कारण  हो सकते है जिसे शिक्षा में त्रुटि माना जा सकता है। कभी कभी कक्षाएं लेने के स्थान में परिवर्तन भी छात्रो के लिए  असुविधा का कारण बन जाता है।परन्तु आज स्थिति यह हो गई है कि सबसे अधिक दिक्कत अभिभावको को तब होती है जब उन्हें एक से अधिक जगह पर फीस देकर सीट आरक्षित करनी पड़ ती है और बाद में पसंद के कोर्से में दाखिला मिलने पर फीस के रिफंड लेने की  स्थिति आती है। इस प्रक्रिया में जनता के लाखो रुपये लगे होते है। संस्थान अपने प्रॉस्पेक्टस ,नियमो तथा शर्तो का हवाला दे कर फीस रिफंड करने से इंकार करते है। अभिभावको के पास कोई रास्ता नहीं होता ,इस लिएमजबूरी में सभी शर्ते जानता हुए भी पैसे खर्च करने पड़ ते है।उपभोक्ता अदालतो के खुलने के बाद फीस रिफंड के मामलो की तो जैसे बाड़ ही गयी.

शिक्षण संस्थानो ने भी अंत तक संघर्ष किया।  नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत की जीत हुई।  संस्थानो की फीस लौटा  कर बाद में सीट भर लेने के तथ्य भी सामने आये जिसे सही नहीं ठहराया  गया क्योकि एक सीट के लिए दो बार फीस दो अलग अलग लोगो से इकठा करना दूकानदारी हो सकती है शिक्षा देना नहीं।  सर्वोच्च न्यायालये के आदेश के साथ यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने भी कई दिशा निर्देश जारी किये जिसमे कुछ कक्षाएं लेने पर आनुपातिक फीस काट कर लोटने के नियम बनाये गए।  कुछ संस्थान मूल प्रमाण पत्र तक देने से इंकार कर देते थे ,उनके लिए भी कठोर नियम बनाये गए।  पूरे कोर्स दो या तीन वर्ष के लिए फीस इकट्ठी  लेने पर भी आपति उठाई गयी। भ्रामक विज्ञापन आज का  सबसे अधिक  चर्चित विषये हो गया है।हैम सहेज ही विश्वास भी करते है और ठगे भी जाते है।  बाज़ार में बिकने वाली वस्तुओ को तो एक के साथ

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