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                        कोई घर हो एक  – हर व्यक्ति का सपना

हमारी मूलभूत आवश्यकताओ मे सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पावो के नीचे एक बित्ता ज़मीन का होना । आसमान को छूने वाली कीमतों ने आज इसे ही सबसे बड़ी समस्या बना दिया है । अपने जीवन की पूरी जमा पूंजी लगा देने के बाद भी एक घर का सपना पूरा होने मे एक पीड़ी बुढ़ा जाती है ।मकान  बनाने के लिए ईट चूने के लिए बाज़ार जाने का ज़माना गुज़र गया अब ।इस बाज़ार पर अब बिलडर्स का कब्जा है या सरकारी हाउसिंग बोर्ड है जहा आप अपना नाम रजिस्टर करा सकते है । लगभग सभी हाउसिंग बोर्ड या प्राइवेट बिल्डर्स अब स्व वित्तीय योजनाओ मे ही काम करते है ।पंजीकरण के समय कुछ एक मुश्त राशी जमा करने के बाद किश्तों मे आपसे पैसे की मांग की जाती है ओर यह मांग भवन निर्माण की स्टेज से जुड़ी होती है ।  जैसे जैसे निर्माण होता जाता है, वैसे वैसे ओर पैसे की मांग की जाती है ।

 यह तो थी मूल पॉलिसी /योजना जिसके अंतर्गत हाउसिंग का काम सरकारी तथा  प्राइवेट बिल्डर्स के माध्यम से शुरू हुआ था ।किन्तु आज सबसे अधिक त्रस्त है उपभोक्ता जब सारे जीवन की कमाई दाव पर लग जाने के बाद भी घर नहीं मिलता । अदालते इन बिल्डर्स के विरुद्ध शिकायतों से भरी पड़ी है ओर सालो साल तक उन्हे राहत नहीं मिल पाती । इन मे मुखय  शिकायते होती है-

1.       कब्जा बहुत देर से मिलना

2.       मकान त्रुटिपूर्ण होना /मकान मे त्रुटियां रह जाना

3.       क्षेत्रफल कम निकालना

4.       कीमत बड़ा देना

5.       रेजिस्ट्रेशन केंसिल करने पर पंजीकरण राशी ज़ब्त कर लेना

6.       अप्रोच रोड सही न होना

7.       घर के सामने कोई व्यवधान होना ।

इन सब मुश्किलों से जूझता व्यक्ति कहा जाए ।देश मे कोई रेग्युलेटरी बॉडी नहीं है जो बिल्डर्स या हाउसिंग बोर्ड की गतिविधियो पर नियंत्रण कर सके । वर्ष 1986 मे  उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम बना जिसका मुखय प्रयोजन बेची जाने वाली वस्तुओ मे दोष तक सीमित था । वर्ष 1993 मे लखनऊ हाउसिंग बोर्ड के विरूद्ध एक मामला उपभोक्ता अदालत मे आया ओर एक बहस छिड़ गई कि मकान वस्तु नहीं है, इसे कैसे उपभोक्ता अदालत का मामला माना जाए। सर्वोच अदालत ने भवन निर्माण को उपभोक्ता को दी जाने वाली सेवा मानते हुए उनसे होने वाली सभी शिकायतों को सेवा मे कमी मानते हुए उपभोक्ता अदालत का मामला मान लिया । एम बी गुप्ता बनाम लखनऊ  विकास प्राधिकरण के इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद से भवन निर्माण का दायित्व लेना बिल्डर्स /हाउसिंग बोर्ड्स के लिए सेवा देना हो गया । उसी वर्ष 1993 मे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम मे संशोधन करके भवन निर्माण को सेवा की परिभाषा मे जोड़ दिया गया । अब कोई भी व्यक्ति प्राइवेट बिल्डर या सरकारी हाउसिंग बोर्ड  के  विरूद्ध उपभोक्ता अदालत मे शिकायत कर सकता है ।

परंतु वास्तव मे स्थिति पर्याप्त गंभीर हो रही है जब कई प्रोजेक्ट लंबे अरसे तक शुरू ही नहीं होते । शुरू हो भी जाते है तो बीच मे किसी न किसी कारण से रोक दिये जाते है । पूरे हो भी जाते है तो कई तकनीकी कारणो से कब्जा नहीं दिया जाता । निर्माण की अवधी मे ही कई बार कीमत बड़ा दी जाती है ओर यदि कोई बड़ी हुई कीमत नहीं दे पाता ओर बूकिंग को केनसेल करता है तो उसकी पंजीकरण राशी कट ली जाती है । इन सभी समस्याओ पर अनगिनत मामले उपभोक्ता अदालतों से होते हुए सर्वोच न्यायालयों तक पहुच चुके है ओर इस समय तक लगभग हर विषये पर सर्वोच अदालत अपने फैसले दे चुकी है जो बिल्डेर्स ओर उपभोक्ता के बीच के विवाद के लिए कानून बन गए है ।

इस संबद्ध मे सबसे पहला केस 1993 का एम बी गुप्ता बनाम लखनऊ विकास प्राधिकरण का था । इस केस मे आवेदक ने फ्लेट  बूक कराया । अथॉरिटी के पास उपलब्ध फ्लेटो  से अधिक आवेदन आए ,ड्रा निकाला गया ओर सभी आवेदको को फ्लॅट आबंटित कर दिये गए । आवेदक को फ्लॅट कई वर्षो तक नहीं मिला क्योकि वह तैयार नहीं था । उपभोक्ता अदालत मे यह पहला ऐसा मामला था ।उपभोक्ता अदालत ने अपने फैसले मे फ्लॅट को तैयार करके देने के आदेश दिये या फिर अथॉरिटी यदि तैयार करके देने की स्थिति मे नहीं है तो तैयार करने के पैसे दे कर जैसा है वैसा दे दे । अथॉरिटी अपील मे स्टेट कमीशन से होती हुई सूप्रीम कोर्ट तक पहुची ओर कई प्रश्न सामने आए। इस बीच हाउसिंग संबधी  कई अनय मामले भी नेशनल कमीशन से होते हुए सर्वोच न्यायल्ये पहुच गए आए जिनको एक साथ सुना गया ।

      पहला मुखय प्रश्न था-क्या उपभोक्ता अदालते मकान संबंधी  (अचल संपाती) के मामले      सुन सकती है ।

 

अगले अंक मे –सर्वोच न्यायल्ये का क्या था निर्णय .......

                 

                       

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                              भाग-11

 

एम बी गुप्ता बनाम लखनऊ विकास प्राधिकरण (वर्ष 1993)मामले मे एक लंबी बहस हुई ओर अदालत ने माना -

1.    अथॉरिटी के पास या प्राइवेट बिल्डर के पास मकान बनाने के लिए पंजीकृत होते ही सेवा देने का करार हो जाता है ओर अथॉरिटी सेवा देती है । पैसा ले केर सेवा  न देना सेवा  मे  कमी होगा ,इसलिए अथॉरिटी के साथ किसी सेवा के लिए पंजीकृत होने के कारण व्यक्ति उपभोक्ता हो जाता है।

2.    साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि  कोई ऑफिसर यदि बदनीयत से या लापरवाही से फ़ाइल रोक कर बैठा रहता है तो उपभोक्ता को मिलने वाली मुआवजे की राशि उस ऑफिसर से वसूल की जाए । ये एक बड़ा फैसला था जिसके अनुसार सेवा मे कमी के लिए दोषी कार्मिक को भी आर्थिक दंड दिया जा सकता है । 

 

 वर्ष 1993 के इस आदेश के बाद से असंख्य मामले उपभोक्ता अदालतों मे आने लगे ओर विभिन आदेशो के माध्यम से आज की तारीख तक हाउसिंग के संबद्ध मे जो सर्वोच अदालत ने कानून बनाए है।अब ऐसे मामले भी सामने आने लगे जिसमे बिल्डर मकान बना कर बेचने लगे या लेंड का मालिक बिल्डर से मकान बनवा कर फ्लॅट बेचने लगा । बिलडर्स ने इसमे आपती उठाई कि  तीन पार्टियो के बीच के इस करार को उपभोक्ता अदालते नहीं सुन सकती ।इस प्रकार का पहला  केस फकीर चंद गुलाटी बनाम उप्पल अजेंसीसि प्राइवेट लिमिटेड का  2005 मे सर्वोच न्यायल्ये पहुचा जिसका निर्णये  17  जुलाई वर्ष 2008 मे हुआ । इस मामले मे सर्वोच न्यायल्ये का मनना  था-

1.      लेंड का मालिक जब बिल्डर के साथ निर्माण करने तथा निर्मित क्षेत्र मे हिस्सा देने का करार करता है तो इसे सेवा लेने का करार माना जाएगा ।इसी प्रकार के तथ्यो के साथ बाद मे कई मामलो के फैसले अदालतों द्वारा हुए है ।

.अरुण कुमार के मामले मे ऐसा ही एक फैसला नेशनल कमीशन ने 1.4 2014 को किया ।   अरुण कुमार तथा उसके कुछ साथियो ने तीन ज़मीन धारको के साथ जिसमे सबके हिस्से मे 1/3 ज़मीन थी ,फ्लॅट बनवाने  का करार किया जिसके लिए एक मुश्त राशी कीमत के रूप मे तय हो गई ।  मल्टी कन्स्ट्रकशन उनमे से एक था जिसे बाकी के दोनों लेंड  औनेर्स ने निर्माण करने की अथॉरिटी दे दी । निर्माण पर कुछ पैसे अधिक भी लगे जो बिना विवाद सभी खरीद  दारो ने सेल डीड के समय  जमा भी कराने की हामी भर दी  । फ्लॅट का कब्जा भी उन्हे मिल गया पर अब तीनों लेंड ओनेर्स सेल डीड के दस्तावेज़ रजिस्टर  नहीं करा  रहे ।  यह मामला वर्ष 2013 मे स्टेट कमीशन से होता हुआ नेशनल कमीशन पहुंचा। विपक्ष का तर्क था  कि  ज़मीन के तीनों हिस्सेदारो के बीच सिविल कोर्ट मे मामला चल रहा है ,इसलिए सेल डीड अभी नहीं हो सकती । दूसरा तर्क यह भी दिया गया कि निर्माण पर अतिरिक्त राशी खर्च हुई है जो फ्लॅट के खरीद दारों पर बकाया है । नेशनल कमीशन ने माना की अतिरिक्त राशी देने के लिए जब मना ही नहीं किया जा रहा तो यह कोई विवाद का विषय नहीं है । दूसरी बात-ज़मीन के मालिको के बीच के विवाद से फ्लॅट के खरीददारों का कोई लेना देना नहीं है ,उन्हे निर्धारित शर्तो के अनुसार फ्लॅट के कब्जे के साथ ही कानूनी दस्तावेज़ भी  मिलने चाहिए । इसलिए विपक्ष के तीनों ज़मीन धारको को सेल डीड करने के आदेश दिये ।  

ऐसा भी कई बार होता है की किसी कारण से बिल्डर मकान नहीं बना पाता,प्रोजेक्ट केनसिल हो जाता है या प्रशासनिक अनुमोदन नहीं मिलते । किसी कारण से बिल्डर ग्राहक का पैसा लंबे अरसे तक अपने पास रखे रखता है ओर फ्लॅट /ज़मीन नहीं देता तो उसे 18% तक व्याज के आदेश उपभोक्ता अदलते दे सकती है ।  ऐसे मे अपनी इतनी बड़ी पूंजी लगा चुकने के बाद अब यदि पैसे वापिस भी मिलते है तो कीमते इतनी बड़ चुकी होती है । इस प्रकार के बहुत सारे मामले नेशनल कमीशन मे आए जिनके वर्ष 2002 मे एक साथ निर्णये  करते हुए कमीशन ने बहुत सारे मानदंड तय  किए । मुखय केस गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण बनाम बलबीर सिंह 2002 का था जो बाद मे सर्वोच न्यायल्ये भी गया ओर नेशनल कमीशन के ही आदेश की पुष्टी करते हुए सर्वोच न्यायल्ये ने भी वही नीरनाए 2004 मे दोहराया । इस केस के माध्यम से यह तये हो गया -

·         यदि हाउसिंग बोर्ड बिल्डिंग बनाने मे बहुत देर लगाता है तो खरीददार अपना रजिस्ट्रेशन केनसिल करा सकता है ओर ऐसी स्थिति मे उसकी राशी मे कटौती  नहीं की जा सकेगी ओर उसे अपनी जमा राशी पर तथ्यो के आधार पर 18% तक व्याज मिल सकता है ।किन्तु  यदि खरीददार अपने निजी कारणो से रेजिस्ट्राशन  केनसिल करता है तो  बिल्डर को निर्धारित  नियमो के अनुसार राशी काटने का अधिकार होगा ।

·         यदि इस बीच निर्माण की कीमत बड़ती है तो बिल्डर भी तर्क संगत तरीके से कीमत बड़ा सकता है ।ऐसी स्थिति मे कई बार अतिरिक्त राशी की व्यवस्था ना हो पाने के कारण यदि कोई रेजिस्ट्राशन केंसिल करता है तो बिल्डर या अथॉरिटी पंजीकरण की राशी ज़ब्त नहीं करेगी ओर जमा राशी पर व्याज भी देगी ।

 

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·         क्रमश.......

                                    भाग -111

 

 ओम प्रकाश गुप्ता ने अगस्त 1987 मे मेरठ विकास प्राधिकरण मे पाँच हज़ार पंजीकरण राशी जमा करा कर 600 वर्ग मिटर ज़मीन के लिए आवेदन किया । नवम्बर 2011 तक ओम कुमार गुप्ता को कोई सूचना नहीं मिली । अंत मे पूछ ताछ करने पर पता चला की जिस यजना के तहत उसने आवेदन किया था वह योजना किसी कारण से बंद करनी पड़ी । अथॉरिटी ने समाचार पत्र मे इसकी सूचना दी थी ओर सभी आवेदन करता अपनी राशि बहुत पहले ले चुके है ।ओम प्रकाश ने उपभोक्ता अदालत मे शिकायत की ओर अदालत ने ओम प्रकाश के पक्ष मे फैसला केरते हुए कहा की यदि अथारिती ने किसी अनये आवेदक को प्लॉट दिया है तो ओम प्रकाश को भी कोई अनये प्लॉट दे । यदि किसी को भी प्लॉट नहीं दिया गया तो सारी राशी 12% व्याज के साथ 5000/-मुआवजा तथा 3000/- खर्चे के आदेश दिये। ओमप्रकाश ने तो अपील नहीं की पर अथॉरिटी ने अपपील कर दी ओर नेशनल कमीशन से होता हुआ जब मामला सर्वोच न्यायल्ये पहुचा तो सर्वोच न्यायल्ये ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया । अथॉरिटी ने  ओम प्रकाश का पैसा 27 साल तक रखा ओर उसे पत्र तक नहीं लिखा की वह अपना पैसा ले ले । अब जब कीमते इतनी बड़ चुकी है ,पिछली दरो पर कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है ।इसलिए अथॉरिटी उपभोक्ता अदालत के आदेश का पालन 90 दिनो के भीतर करे अन्यथा 100/ रुपया प्रति दिन के हिसाब से हरजाना देना होगा ।साथ ही एक लाख के मुआवजे का भी आदेश दिया ।

कभी कभी करार मे निर्माण पूरा  होने की अवधी ही नहीं दी जाती जिससे उपभोक्ता यह नहीं सीध कर पाता की निर्माण मे विलंब कितना हुआ । ऐसे बहुत से मामले जब अदालतों मे आने लगे तो सर्वोच अदालत ने बेंगलोर  विकास प्राधिकरण बनाम सिंडीकेट बैंक के मामले मे 17 मई 2005 मे अपना निर्णये  सुनाते  हुए यह स्थापित किया व बिलडर्स के लिए निर्देश जारी किए की –

·         बिल्डर अपने करार मे निर्माण की अवधी तथा कब्जा देने की तारीख अवश्ये लिखे ।

·         व्याज के आदेश  मामले के तथ्यो के आधार पर दिया जाना चाहिए ,हमेशा 18% व्याज नहीं दिया जा सकता ।

·         जब व्याज का आदेश दिया जा रहा हो तो साथ मे फिर मानसिक कष्ट के लिए मुआवजा देने की आवश्यकता नहीं होती।

·         जहां मुआवजा मानसिक कष्ट  के लिए दिया जा रहा हो ,वह मुआवजे मे से स्तोत्र पर से तक्ष नहीं काटा जाना चाहिए क्योकि वह वेतन नहीं होता ।

 

·         फ्लॅट को देने मे देरी होना सेवा मे कमी माना जाएगा ओर बिल्डर उस देरी की अवधी के लिए जमा राशी पर व्याज दे jo की पैसा टेने तक के दिन तकगिना जाएगा।  साथ ही देरी के कारण खरीददा को हुई हानी की भी भरपाई करे । जैसे –किराए पर रहना पड़ा तो उस अवधी मे खर्च हुआ किराया भी वह वसूल केर सकता है ।

                        किन्तु सर्वोच न्यायल्ये ने यू टी आई चंडीगढ़ प्रशासन बनाम अमरजीत सिंह के मामले मे वर्ष 2009 मे इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि  एक साथ सारा पैसा दे केर मकान खरीदने पर वह उपभोक्ता नहीं होगा क्योकि इसमे मकान बनवाने की सेवा नहीं ली गई थी,एक करार बेच - खरीद का होता है।  यदि कोई प्रॉपर्टि बोली लगा केर नीलामी मे खरीदी जाती है तो भी खरीददार उपभोक्ता नहीं होता । इसके पीछे तर्क यह था की नीलामी की चीस जैसी है जहां है के आधार पर देख कर ओर त्रुटियो खामियो को जानते हुए बोली लगती है ओर कीमत तय  होती है ओर यह खरीददार के रिस्क ओर रेस्पॉन्सिबिलिटी पर होता है ।  किन्तु यदि दो व्यक्ति एक मकान की खरीद फरोख्त प्र्पेरती डीलर के माध्यम से कमीशन दे केर  केरते है तथा इस मे डील मे कुछ गड़बड़ होती है तो प्रॉपर्टि डीलर सेवा प्रदान केरने वाला हो जाता है ओर सेवा मे कमी का मामला उसके वीरुध बंता है

               हाउसिंग पर ही एक अनये मामले मे हाल ही मे नेशनल कमीशन ने डी डी ए के अलक अलग अल्लोट्टीस से एक ही प्रकार के ,एक ही लोकेशन मे ओर एक ही जीतने एरिया के लिए अलग अलग देर से फ्लॅट देने को पक्षपात पूर्ण माना । तथ्ये यह है की कुछ आलोतीस को फ्लॅट अलोट केरने के बाद डी डी ए ने एक फ्लॅट की देर संबढ़ी अपनी नीति मे परिवर्तन किया ।अब शेयर मनी तथा ओवर आल कोस्ट पर सर्विस चरगेस को फ्लॅट की कोस्ट मे नहीं जोड़ा गया जिससे बाद मे अलोटमेंट लेने वाले आलोतीस को कम कीमत पर फ्लॅट मिले ।  राजेंदर प्रसाद तथा अनये कुछ आलोतीस ने आपटी उठाई ओट उपभोक्ता अदालत मे केस दर्ज केर दिया । नेशनल कमीशन ने अपने19  मई 2014 के फैसले मे इसे समानता के अधिकार का उलंघन माना ओर डी डी को दोनों प्रकार के आलोटियों से समान व्यवहार के निरद्देश दिये । यदि डी डी ए को अपना फार्मूला बदलना है तो वह फार्मूला एक वर्ग के सभी आवेदांकर्ताओ पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

      सारांश मे अपने नियम भी बोर्ड जब बनाए तो एक वर्ग के सभी लोगो पर वह नियम लागू होना    चाहिए ओर उसकी व्याख्या भी टेर्क स्नाग्त होनी चाहिए ।

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                              भाग 1V

कोने के प्लॉट पर हाउसिंग  बोर्ड द्वारा  अधिक दर की मांग का मध्ये प्रदेश हाउसिंग बोर्ड का एक मामला भी पिछले कुछ दिनों चर्चा मे रहा योगेश जोशी ने उपभोक्ता अदालत मे बोर्ड की कोर्नर प्लॉट के लिए अधिक राशी की मांग पर आपती उठाई क्योकि कोर्नर का प्लॉट लाटरी द्वारा मिला था जो की किस्मत की बात थी ओर किस्मत से बेस्ट लोकेशन का प्लॉट मिलने पर बोर्ड का अधिक राशी की मांग केरना उचित नहीं हो सकता । उपभोक्ता अदालत इंदौर  ने उपभोक्ता के पक्ष मे आदेश देते हुए हाउसिंग बोर्ड की मांग को अनुचित माना । उपभोक्ता अदालत के इस आदेश के वीरुध अपील केरने पर स्टेट कमीशन मध्ये प्रदेश ने आदेश को उलट दिया तथा यह माना की नोटिफिकेशन  तथा  शर्तो के अनुसार हाउसिंग बोर्ड अतिरिक्त राशी की मांग केर  सकता है। नेशनल कमीशन ने स्टेट कमीशन के को नहीं माना ओर लॉटरी के आधार पर मिले प्लॉट पर अतिरिक्त राशी की मांग को सही नहीं ठहराया । नेशनल कमीशन का यह मनन था की लोत्तरी से आची लोकेशन का प्लॉट मिल जाना टोकिस्मत की बात है ,इसलिए उस पर अधिक राशी आदेश ही लेनी थी तो लोट्री का क्या लाभ ।

      मामला सर्वोच न्यायल्ये पहुचा तो इसके ओचित्ये के प्रश्न की विषद व्याख्या हुई। इस विषये पर चर्चा से पहले यह जनन भी आवश्यक है की अब तक के निर्णीत मामलो के आधार पर किस स्थिति मे बोर्ड निर्धारित राशी से अधिक की मांग केर सकते है ।हाउसिंग पर सर्वोच न्यायल्ये के पहले फैसले एम बी गुप्ता के मामले मे ही यह प्रश्न उठा था जिसकी विषाद व्याख्या गाज़ियाबाद डेव्लपमेंट अथॉरिटी अँड अदर्स के वर्ष 2002 तथा 2004  के बहुत सारे मामलो को एक साथ सुनते हुए सर्वोच न्यायल्ये ने चर्चा की । इन मामलो का नीरनाए देते हुए सर्वोच न्यायल्ये ने माना की भवन निर्माण की सामाग्री की कोस्ट बदने पर हाउसिंग बोर्ड कीमत तो बड़ा सकता है किन्तु यदि उपभोक्ता बड़ी हुई कीमत अदा करने मे समर्थ नहीं होता ओर रेगिस्त्रशन कैन्सल करता है तो उसको व्याज सहित राशी वापिस मांगने का भी अधिकार होता है। एसी स्थिति मे बिल्डर या हाउसिंग बोर्ड का रेगिस्त्रशन राशी से कटौती का नियम लागू नहीं होता ।

      यहा पर स्थिति बिलकुल दूसरी है । लोत्तरी से कोने का प्लॉट मिलना भगये की बात तो हो सकती है किन्तु बोर्ड को नुकसान पाहुचते हुए कोने वाले प्लॉट मे जाने वाली अतिरिक्त भूमि को बिना कीमत के देने का प्रावधान नहीं है । प्रत्येक व्यक्ती कीमत दे केर भी कोने वाला या बेस्ट लोकेशन का प्लॉट चाह सकता है पर सबको अपनी चाहत के अनुसार प्लॉट नहीं मिल सकता । इसलिए लोट्ट्री का प्रयोग एक समाधान के तोर पर कई समस्याओ से बचने के लिए किया जा सकता है । इसके लिए बोर्ड के नोटिफिकशन मे तथा विज्ञापन मे स्पष्ट उल्लेख थे की कोर्नर प्लॉट तथा बेस्ट लोकेशन की स्थिति मे अतिरिक्त राशी देनी होगी। इसलिए सबसे बड़ी अदालत ने नेशनल कमीशन के आदेश को खारिज करते हुए मांग को सही माना ।

याद रखे -

 

1.    अथॉरिटी के पास या प्राइवेट बिल्डर के पास मकान बनाने के लिए पंजीकृत होते ही सेवा देने का करार हो जाता है ओर अथॉरिटी सेवा देती है । पैसा ले केर सेवा  न देना सेवा  मे  कमी होगा ,इसलिए अथॉरिटी के साथ किसी सेवा के लिए पंजीकृत होने के कारण व्यक्ति उपभोक्ता हो जाता है।

2.    कोई ऑफिसर यदि बदनीयत से या लापरवाही से फ़ाइल रोक कर बैठा रहता है तो उपभोक्ता को मिलने वाली मुआवजे की राशि उस ऑफिसर से वसूल की जाए । ये एक बड़ा फैसला था जिसके अनुसार सेवा मे कमी के लिए दोषी कार्मिक को भी आर्थिक दंड दिया जा सकता है । 

3.      लेंड का मालिक जब बिल्डर के साथ निर्माण करने तथा निर्मित क्षेत्र मे हिस्सा देने का करार करता है तो इसे सेवा लेने का करार माना जाएगा ।इसी प्रकार के तथ्यो के साथ बाद मे कई मामलो के फैसले अदालतों द्वारा हुए है ।

4.    यदि हाउसिंग बोर्ड बिल्डिंग बनाने मे बहुत देर लगाता है तो खरीददार अपना रजिस्ट्रेशन केनसिल करा सकता है ओर ऐसी स्थिति मे उसकी राशी मे कटौती  नहीं की जा सकेगी ओर उसे अपनी जमा राशी पर तथ्यो के आधार पर 18% तक व्याज मिल सकता है ।किन्तु  यदि खरीददार अपने निजी कारणो से रेजिस्ट्राशन  केनसिल करता है तो  बिल्डर को निर्धारित  नियमो के अनुसार राशी काटने का अधिकार होगा ।

5.    यदि इस बीच निर्माण की कीमत बड़ती है तो बिल्डर भी तर्क संगत तरीके से कीमत बड़ा सकता है ।ऐसी स्थिति मे कई बार अतिरिक्त राशी की व्यवस्था ना हो पाने के कारण यदि कोई रेजिस्ट्राशन केंसिल करता है तो बिल्डर या अथॉरिटी पंजीकरण की राशी ज़ब्त नहीं करेगी ओर जमा राशी पर व्याज भी देगी ।

6.    बिल्डर अपने करार मे निर्माण की अवधी तथा कब्जा देने की तारीख अवश्�

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